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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 निमित्तरूप है; किन्तु वह द्रव्य कौन-सा है, इस सम्बन्ध में जीव ने कभी कोई विचार नहीं किया; इसलिए उसे इसकी कोई खबर नहीं है। क्षेत्रान्तरित होने में निमित्तरूप जो द्रव्य है, उस द्रव्य को 'धर्मद्रव्य' कहा जाता है। यह द्रव्य अरूपी है, ज्ञानरहित है। अधर्मद्रव्य :
जैसे गति करने में धर्म द्रव्य निमित्त है। उसी प्रकार स्थिति करने में उससे विरुद्ध अधर्म द्रव्य निमित्तरूप है। "राजकोट से सोनगढ़ आकार स्थित हुए" इस स्थिति में निमित्त कौन है ? स्थिर रहने में आकाश निमित्त नहीं हो सकता, क्योंकि उसका निमित्त तो रहने के लिए है, गति के समय भी रहने में आकाश निमित्त था। इसलिए स्थिति का निमित्त कोई अन्य द्रव्य होना चाहिए। और वह द्रव्य 'अधर्म द्रव्य' है। यह द्रव्य भी अरूपी और ज्ञानरहित है। आकाशद्रव्य :
प्रत्येक द्रव्य के अपना स्वक्षेत्र होता है, वह निश्चय क्षेत्र है, जहाँ निश्चय होता है वहाँ व्यवहार होता है, जो ऐसा न हो तो अल्पज्ञ प्राणी को समझाया नहीं जा सकता। इसलिए जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा कालाणुओं के रहने का जो व्यवहार -क्षेत्र वह आकाश है, उस आकाश में अवगाहन-हेतु गुण होने से उसके एक प्रदेश में अनन्त सूक्ष्म रजकण तथा अनन्त सूक्ष्म स्कन्ध भी रह सकते हैं, आकाश क्षेत्र है और अन्य पाँच द्रव्य क्षेत्री हैं। क्षेत्र, क्षेत्री से बड़ा होता है, इसलिए एक अखण्ड आकाश के दोभाग हो जाते हैं, जिसमें पाँच क्षेत्री रहते हैं, वह लोकाकाश है और बाकी का भाग अलोकाकाश है।
'आकाश' नामक द्रव्य को लोग अव्यक्त रूप से स्वीकार
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