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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [269 लिये काम की नहीं है, कुछ पराश्रय चाहिए और पुण्य भी करना चाहिए; पुण्य के बिना अकेला आत्मा कैसे टिक सकता है?' इस प्रकार अपनी पराश्रय की विपरीत मान्यता को दृढ करके सुना। सत् को सुनकर भी उसने उसे आत्मा में ग्रहण नहीं किया; इसलिए महा मिथ्यात्व दूर नहीं हुआ। __ प्रारम्भ से ही आत्मा के स्वावलम्बी शुद्धस्वरूप की समझ, उसकी श्रद्धा और उसका ज्ञान करने का जो मार्ग है, वह नहीं रुचा, किन्तु अनादि काल से पराश्रय रुचा है, इसलिए सत् को सुनते हुए कई जीवों को ऐसा लगता है कि अरे ! यदि आत्मा का ऐसा स्वरूप मानेंगे तो समाज-व्यवस्था कैसे निभेगी? जब कि समाज में रह रहे हैं, तब एक-दूसरे का कुछ करना तो चाहिए न? ऐसी पराश्रित मान्यता से संसार का पक्ष नहीं छोड़ा और आत्मा को नहीं पहिचाना। सत्य को समझने की आवश्यकता : स्वाधीन सत्य को स्वीकार करने से जीव को कदापि हानि नहीं होती और समाज को भी सत्यतत्त्व को मानने से कदापि कोई हानि नहीं होगी। समाज अपनी अज्ञानता से ही दु:खी है और वह दुःख अपनी यथार्थ समझ से ही दूर हो सकता है; इसलिए यथार्थ समझ करनी चाहिए। जो यह मानता है कि समझ से हानि होगी, वह सत्य का महान अनादर करता है। मिथ्यात्व का महापाप दूर करने के लिये सर्व प्रथम यथार्थ तत्त्व की सच्ची पहिचान करने का अभ्यास करना आवश्यक है। सर्वज्ञ-वीतराग देव, निर्ग्रन्थ गुरु और उनके कहे गये अनेकान्तमय सत् शास्त्रों का ठीक निर्णय करना चाहिए। स्वयं हिताहित का निर्णय करके, सत्य को समझने का जिज्ञासु होकर, Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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