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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 देवमूढ़ता - (देव का अर्थ पुण्य के फल से प्राप्त स्वर्ग के देव नहीं; किन्तु ज्ञान की दिव्यशक्ति के धारण करनेवाले सर्वज्ञदेव है।) सच्चे धर्म को समझानेवाला कौन हो सकता है, ऐसी विचारशक्ति होने पर भी उसका निर्णय नहीं किया।
गुरुमूढ़ता – बीमार आदमी इस सम्बन्ध में बहुत विचार करता है और परिश्रम करके यह ढूँढ़ निकालता है कि किस डॉक्टर की दवा लेने से रोग दूर होगा? लोग कुम्हार के पास दो टके की हँडी लेने जाते हैं तो उसको भी खूब ठोक-बजाकर परीक्षा करके लेते हैं; इस प्रकार और भी अनेक सांसारिक कार्यों में परीक्षा की जाती है, किन्तु यहाँ पर आत्मा के अज्ञान का नाश करने के लिये और दूर करने के लिए अथवा निमित्त (गुरु) हो सकता है ? इसकी परीक्षा के द्वारा निर्णय करने में विचार-शक्ति को नहीं लगाता और जैसा पिताजी ने कहा है अथवा कुलपरम्परा से जैसा चला आ रहा है, उसी का अन्धानुसरण करके दौड़ लगाता है, यही गुरुमूढ़ता है।
इस प्रकार जीव या तो विचार-शक्ति का उपयोग ही नहीं करता और यदि उपयोग करने जाता भी है तो उपरोक्त लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ता से तीन प्रकार से लुट जाता है। कुगुरु कहते हैं कि दान दोगे तो धर्म होगाः किन्त भले आदमी! ऐसा तो भिखारी भी कहा करते हैं कि भाई साहब! एक बीड़ी दोगे तो धर्म होगा। इसमें कुगुरु ने कौनसी अपूर्व बात यह दी और फिर शील का उपदेश तो माँ-बाप भी देते हैं, वे भी धर्मगुरु कहलायेंगे। स्कूलों और पाठशालाओं से भी अहिंसा, सत्य और ब्रह्मचर्यादि पालन करने को कहा जाता है तो वहाँ के अध्यापक भी धर्मगुरु
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