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________________ www.vitragvani.com 258] भाग-1 गृहीत मिथ्यात्व : निगोद से निकले हुए जीव को कभी मन्दकषाय से मन प्राप्त हुआ और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय हुआ, उसके विचारशक्ति प्राप्त हुई और वह ऐसा सोचने लगा कि मेरा दुःख कैसे मिटे, तब पहले 'जीव क्या है ?' यह विचार किया, इसका निश्चय करने के लिये दूसरे से सुना अथवा स्वयं पढ़ा, वहाँ उल्टा नया भ्रम उत्पन्न हो गया। वह नया भ्रम क्या है ? दूसरे से सुनकर ऐसा मानने लगा कि जगत् में सब मिलकर एक ही जीव है, शेष सब भ्रम है या तो गुरु से हमें लाभ होगा अथवा भगवान की कृपा से हम तिर जायेंगे या किसी के आशीर्वाद से कल्याण हो जायेगा अथवा वस्तु को क्षणिक मानकर वस्तुओं का त्याग करें तो लाभ होगा अथवा मात्र जैनधर्म ने ही सच्चाई का ठेका नहीं लिया, इसलिए जगत के सभी धर्म सच्चे हैं; इस प्रकार अनेक तरह के बाहर के नये-नये भ्रम ग्रहण किये परन्तु भाई ! जैसे 'एक और एक मिलकर दो ही होते हैं,' यह त्रिकाल सत्य है; उसी प्रकार जो वस्तुस्वभाव या वस्तुधर्म है, यही वीतरागी-विज्ञान ने कहा है। इसलिए वह त्रिकाल सत्य ही है, अन्य कोई कथन सत्य नहीं है। जन्म के बाद अनेक प्रकार की नयी विपरीतमान्यताएँ ग्रहण की, उसी को गृहीत मिथ्यात्व भी कहते हैं। उसे लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ता भी कहा जाता है। __लोकमूढ़ता – पूर्वजों ने अथवा कुटुम्ब के बड़े लोगों ने किया या जगत के अग्रगण्य बड़े लोगों ने किया; इसलिए मुझे भी वैसा करना चाहिए और स्वयं विचार-शक्ति से यह निश्चय नहीं Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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