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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[249 प्रगट होती है। अपूर्णता के लक्ष्य से ही सम्यग्दर्शन या वीतरागता प्रगट नहीं होती, परन्तु राग उत्पन्न होता है। सम्यग्दर्शन के बाद भी जीव को परिपूर्णता के लक्ष्य से ही क्रमशः चारित्र-वीतरागता और सर्वज्ञता प्रगट होती है।
मुमुक्षुओं को ऊपर के अनुसार द्रव्य और पर्याय का यथार्थ ज्ञान करके, त्रिकाल द्रव्यस्वभाव की ओर रुचि (उपादेयबुद्धि) करके, वहीं एकता करनी चाहिए और पर्याय की एकत्वबुद्धि छोड़ने योग्य है। यही धर्म का उपाय है।
जिसके पर्यायदृष्टि होती है, वह जीव, राग को अपना कर्तव्य मानता है और राग से धर्म होना मानता है, क्योंकि पर्यायदृष्टि में राग की ही उत्पत्ति है और राग का सम्बन्ध परद्रव्यों के साथ ही होता है; इसलिए पर्यायदृष्टिवाला जीव, परद्रव्यों के लक्ष्य से परद्रव्यों का भी अपने को कर्ता मानता है - इसी का नाम मिथ्यात्व है, यही अधर्म है। इस प्रकार पर्यायबुद्धि, वह मिथ्यादृष्टि है। __ किन्तु जिसकी दृष्टि, द्रव्यस्वभाव की हो गयी है, वह जीव कभी राग को अपना कर्तव्य नहीं मान सकता और न उसमें धर्म ही मानता है, क्योंकि स्वभाव में राग का अभाव है। जो पर्याय के राग का कर्तृत्व भी नहीं मानता, वह परद्रव्य का कर्तृत्व कैसे मानेगा? अर्थात्, उसको पर से और राग से भिन्न स्वभाव की दृष्टि में ज्ञान और वीतरागता की ही उत्पत्ति हुआ करती है – इसी का नाम सम्यग्दृष्टि है और यही धर्म है। इस प्रकार द्रव्यदृष्टि, वह सम्यग्दृष्टि है।
इसलिए सभी आत्मार्थी जीवों को अध्यात्म के अभ्यास के
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