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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 समान है, बिना इकाई के शून्य-समान है। यह सम्यग्दर्शन किसी भी पर के आश्रय से या विकल्प के अवलम्बन से नहीं होता, किन्तु अपने शुद्धात्मस्वभाव के ही आश्रय से होता है। स्वभाव का आश्रय लेते ही विकल्प का आश्रय छूट जाता है, किन्तु विकल्प के लक्ष्य से विकल्प के आश्रय को दूर करना चाहे तो वह दूर नहीं हो सकता। धर्मी जीव का धर्म, स्वभाव के आश्रय से स्थिर है। उसके सम्यग्दर्शनादि धर्म को किसी पर का आश्रय नहीं है। जबकि यह बात है, तब धर्मी जीव के यदि रुपया-पैसा, मकान इत्यादि का संयोग न हो तो इससे क्या? और यदि बहुत से शास्त्रों का ज्ञान न हो तो इससे क्या? धर्मी जीव के यह सब न हों तो इससे कहीं उसके धर्म में कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि धर्मी का धर्म किसी पर के आश्रय, राग के आश्रय या शास्त्र-ज्ञान के आश्रय पर अवलम्बित नहीं है, किन्तु अपने त्रिकाल स्वभाव के ही आधार से धर्मी का धर्म प्रगट हुआ है और उसी के आधार से टिका हुआ है और उसी के आधार से वृद्धिंगत होकर पूर्णता को प्राप्त होता है।
एकमात्र सम्यग्दर्शन के अतिरिक्त जीव अनन्तकाल में सब कर चुका है, परन्तु सम्यग्दर्शन कभी एक सेकेण्डमात्र भी प्रगट नहीं किया। यदि एक सेकेण्डमात्र भी सम्यग्दर्शन प्रगट करे तो उसकी मुक्ति हुए बिना रहे नहीं।
परम रत्न शंकादि दोषों से रहित ऐसा सम्यग्दर्शन वह परम रत्न है। और वह परमरत्न संसार-दुःखरूपी दरिद्रता का अवश्य नाश करता है।
(-सार समुच्चय - 40)
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