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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[245 इत्यादि सब कुछ किया तो इससे क्या? – ऐसा तो अभव्य जीव भी करते हैं।
प्रश्न – 'सम्यग्दर्शन के बिना व्रत, तप, दान, भक्ति इत्यादि किए तो इससे क्या?' इस प्रकार 'इससे क्या-इससे क्या?' कहकर इन सब कार्यों को उड़ाये देते हो अर्थात् इन दयादि में धर्म मानने का निषेध करते हो, तो हम पूछते हैं कि एकमात्र आत्मा की पहिचान करके सम्यग्दर्शन प्रगट किया तो इससे क्या? मात्र सम्यग्दर्शन प्रगट कर लेने से उसी में सब कुछ आ जाता है क्या?
उत्तर – हाँ; सम्यग्दर्शन हो जाने से उसी में सम्पूर्ण आत्मा आ जाता है, सम्यग्दर्शन के होने पर परिपूर्ण आत्मस्वभाव का अनुभव होता है, जो अनन्त काल में कभी नहीं हुई थी, ऐसी अपूर्व आत्म-शान्ति का संवेदन वर्तमान में होता है। जैसा आनन्द सिद्ध भगवान को प्राप्त है, उसी प्रकार के आनन्द का अंश वर्तमान में अपने अनुभव में आता है। सम्यग्दर्शन के होने पर वह जीव निकट भविष्य में ही अवश्यमेव सिद्ध हो जाएगा। __ वर्तमान में ही अपने परिपूर्ण स्वभाव को प्राप्त करके सम्यग्दृष्टि जीव कृतकृत्य हो जाता है और पर्याय में प्रतिक्षण वीतराग आनन्द की वृद्धि होती जाती है। वे स्वप्न में भी परपदार्थ को अपना नहीं मानते और पर में या विकार में उन्हें सुखबुद्धि नहीं होती। सम्यग्दर्शन की ऐसी अपार महिमा है।
यह सम्यग्दर्शन ही आत्मा के धर्म का मूल है; इसलिए ज्ञानीजन कहते हैं कि इस सम्यग्दर्शन के बिना जीव ने सबकुछ किया, उससे क्या? सम्यग्दर्शन के बिना सब व्यर्थ है, अरण्यरोदन के
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