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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[229 फँसती नहीं है, उसके भावों में कदापि आत्मा के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी आत्म-समर्पणता नहीं आ पाती – जहाँ ऐसी दशा की प्रतीति भी न हो, वहाँ सम्यग्दर्शन हो ही नहीं सकता।
बहुत से जीव, कुधर्म में ही अटके हुए हैं, परन्तु अहा! परम सत्यस्वरूप को सुनते हुए भी, विकल्पज्ञान से जानते हुए भी, 'यही सत्य है' - ऐसी प्रतीति करके, अपना आन्तरिक परिणमन तद्रूप किये बिना सम्यक्त्व की पवित्र आराधना को अपूर्ण छोड़कर उसी में सन्तोष मान लेनेवाले जीव भी तत्त्व का अपूर्व लाभ नहीं पा सकते। __इसलिए अब आत्मकल्याण के हेतु यह निश्चय करना चाहिए कि अपनी वर्तमान में होनेवाली यथार्थ दशा कैसी है - यह निर्णय करना और भ्रम को दूर करके रत्नत्रय की आराधना में निरन्तर प्रर्वतना / यही परम पावन कार्य है।
सम्यक्त्व की आराधना "ज्ञान-चारित्र और तप इन तीनों गुणों को उज्ज्वल करनेवाली – ऐसी यह सम्यक् श्रद्धा प्रधान आराधना है। शेष तीन आराधनाएँ एक सम्यक्त्व की विद्यमानता में ही आराधक भाव से वर्तती है। इस प्रकार सम्यक्त्व की अकथ्य, अपूर्व महिमा जानकर उस पवित्र कल्याण मूर्तिरूप सम्यग्दर्शन को इस अनन्तानन्त दुःखरूप – ऐसे अनादि संसार की अत्यंतिक निवृत्ति के अर्थ हे भव्यो ! तुम भक्तिपूर्वक अङ्गीकार करो! प्रति समय आराधो।"
-आत्मानुशासन
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