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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
कर डालने की) आवश्यकता है। जब तक यह पुरानी जूठन पड़ी रहेगी, तब तक नया मिष्ट भोजन न तो रुचेगा और न पच सकेगा'इस प्रकार जीव को जब तक अपनी पर्याय की पामरता भाषित नहीं होती, तब तक उसकी दशा सम्यक्त्व के सन्मुख भी नहीं है ।
अरे...रे.. ! परिणामों में अनेक प्रकार का झंझावत आ रहा हो; परिणति का सहजरूप से आनन्दभाव होने की जगह मात्र कृत्रिमता और भय - शङ्का के झोंके आते हों, प्रत्येक क्षण की परिणति विकार के भार के नीचे दब रही हो; कदापि शान्त आत्मसन्तोष का लेशमात्र अन्तरङ्ग में न पाया जाता हो, तथापि अपने को सम्यग्दर्शन मान लेना कितना अपार दम्भ है ! कितनी अज्ञानता है और कितनी घोर आत्मवंचना है ! केवली प्रभु का आत्मपरिणमन सहजरूप से केवलज्ञानमय परमसुखदशारूप हो ही रहा है। सहजरूप से परिणमित होनेवाले केवलज्ञान का मूलकारण सम्यकत्व ही है, तब फिर उस सम्यक्त्व सहित जीव का परिणाम कितना सहज होगा ! उसकी आत्म-जागृति निरन्तर केसी प्रर्वतमान होगी !!
जो अल्प काल में केवलज्ञान जैसी परम सहजदशा की प्राप्ति कराता है, ऐसे इस कल्याणमूर्ति सम्यग्दर्शन को कल्पना द्वारा कल्पित कर लेने में अनन्त केवली भगवन्तों का और सम्यग्दृष्टियों का कितना घोर अनादर है ! यह तो एक प्रकार से अपने आत्मा की पवित्रदशा का ही अनादर है।
सम्यक्त्वदशा की प्रतीति में पूरा आत्मा आ जाता है, उस सम्यक्त्वदशा के होने पर स्वयं को आत्मसाक्षी से सन्तोष होता है, निरन्तर आत्म-जागृति रहती है, कहीं भी उसकी आत्म-परिणति
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