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कौन सम्यग्दृष्टि है ?) शुद्धनय फल के स्थान पर है, इससे जो शुद्धनय का आश्रय करते हैं, वे सम्यक्-अवलोकन करने से सम्यग्दृष्टि हैं परन्तु दूसरे (जो अशुद्धनय का आश्रय करते हैं वे) सम्यग्दृष्टि नहीं है। इसलिए कर्म से भिन्न आत्मा को देखनेवालों को व्यवहारनय अनुसरण करनेयोग्य नहीं है।
(-श्री अमृतचन्द्राचार्यदेवकृत टीका, समयसार-गाथा 11) 'यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि जिनवाणी स्याद्वादरूप है, प्रयोजनवश नय को मुख्य-गौण करके कहती है। प्राणियों को भेदरूप व्यवहार का पक्ष तो अनादि काल से ही है और जिनवाणी में व्यवहार का उपदेश, शुद्धनय का हस्तावलम्ब समझकर बहुत किया है, किन्तु उसका फल संसार ही है। शुद्धनय का पक्ष तो कभी आया ही नहीं और इसका उपदेश भी विरल है- कहींकहीं है, इससे उपकारी श्रीगुरु ने शुद्धनय के ग्रहण का फल मोक्ष जानकर इसका उपदेश प्रधानता से (मुख्यता से) दिया है कि - शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है, इसका आश्रय करने से सम्यग्दृष्टि हुआ जा सकता है, इसे जाने बिना जहाँ तक जीव, व्यवहार में मग्न है, वहाँ तक आत्मा के श्रद्धा-ज्ञानरूप निश्चय सम्यक्त्व नहीं हो सकता।' इस प्रकार आशय समझना।
(-समयसार, गाथा 11 का भावार्थ)
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