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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
किये बिना राग को कम करने अनन्त बार बाह्य चारित्राचार का पालन करने पर भी, दर्शनाचार के अभाव में उसके अनन्त भव दूर नहीं हो सकते। पहले दर्शनाचार के हुए बिना कदापि धर्म नहीं हो
सकता।
श्रद्धा में पर से भिन्न निवृत्तस्वरूप को मान लेने से ही समस्त रागादि की प्रवृत्ति और संयोग छूट ही जाते हों, यह बात नहीं है क्योंकि श्रद्धागुण और चारित्रगुण में भिन्नता है; इसलिए श्रद्धागुण की निर्मलता प्रगट होने पर भी, चारित्रगुण में अशुद्धता भी रहती है ।
यदि द्रव्य को सर्वथा एक श्रद्धागुणरूप ही माना जाए तो श्रद्धागुण के निर्मल होने पर सारा द्रव्य सम्पूर्ण शुद्ध ही हो जाना चाहिए, किन्तु श्रद्धागुण और आत्मा में सर्वथा एकत्व / अभेदभाव नहीं है; इसलिए श्रद्धागुण और चारित्रगुण के विकास में क्रम बन जाता है। ऐसा होने पर भी, गुण और द्रव्य के प्रदेशभेद न मानें; श्रद्धा और आत्मा, प्रदेश की अपेक्षा से तो एक ही हैं ।
और द्रव्य में अन्यत्व / भेद होने पर भी प्रदेशभेद नहीं है । वस्तु में एक ही गुण नहीं, किन्तु अनन्त गुण हैं और उनमें अन्यत्व नाम का भेद है; इसलिए श्रद्धा के होने पर तत्काल ही केवलज्ञान नहीं होता। यदि श्रद्धा होते ही तत्काल ही सम्पूर्ण केवलज्ञान हो जाये तो वस्तु के अनन्त गुण ही सिद्ध नहीं हो सकेंगे । यहाँ आम का दृष्टान्त देकर अन्यत्व / भेद का स्वरूप समझाते हैं - आम में रङ्ग और रसगुण भिन्न-भिन्न हैं; रङ्गगुण हरीदशा को बदलकर पीलीदशा रूप होता है, तथापि रस तो खट्टा ही है तथा रस गुण बदलकर मीठा हो जाता है, तथापि आम का रङ्ग हरा ही रहता है, क्योंकि रङ्ग और रसगुण भिन्न-भिन्न हैं । इस प्रकार वस्तु में
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