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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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और अपने अनन्त स्वभाव की स्वाधीनता की हत्या की गयी है; इसलिए उसमें अनन्त हिंसा का महान पाप होता है।
2. जगत् के समस्त पदार्थ स्वाधीन हैं, उसकी जगह उन सबको पराधीन–विपरीतस्वरूप माना तथा जो अपना स्वरूप नहीं है, उसे अपना स्वरूप माना, इस मान्यता में अनन्त असत् (असत्य) सेवन का महापाप है।
3. पुण्य का विकल्प अथवा किसी भी परवस्तु को जिसने अपना माना है, उसने त्रिकाल की परवस्तुओं और विकारभाव को अपना स्वरूप मानकर अनन्त चोरी का महापाप किया है।
4. एक द्रव्य दूसरे का कुछ कर सकता है, ऐसा माननेवाले ने स्वद्रव्य-परद्रव्य को भिन्न न रखकर, उन दोनों के बीच व्यभिचार करके दोनों में एकत्व माना है और ऐसे अनन्त परद्रव्यों के साथ एकतारूप व्यभिचार किया है, यही अनन्त मैथुनसेवन का महापाप है।
5. एक रजकण भी अपना नहीं है, ऐसा होने पर भी, जीव, 'मैं उसका कुछ कर सकता हूँ', इस प्रकार मानता है, वह परद्रव्य को अपना मानता है। जो जगत् के परपदार्थ हैं, उन्हें अपना मानता है; इसलिए इस मान्यता में अनन्त परिग्रह का महापाप है।
इस प्रकार जगत् के सर्व महापाप एक मिथ्यात्व में ही समाविष्ट हो जाते हैं; इसलिए जगत् का सबसे महापाप मिथ्यात्व ही है और सम्यग्दर्शन के होने पर, ऊपर के समस्त महापापों का अभाव हो जाता है; इसलिए जगत् का सर्व प्रथम धर्म सम्यक्त्व ही है; अत: हे जीवो! यदि तुम महापाप से बचना चाहते हो तो मिथ्यात्व को छोड़ो और सम्यक्त्व को प्रगट करो!...
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