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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
अभेद परिपूर्ण द्रव्य ही सम्यग्दर्शन को मान्य है; मात्र आत्मा को सम्यग्दर्शन तो प्रतीति में लेता है, किन्तु सम्यग्दर्शन के साथ प्रगट होनेवाला सम्यग्ज्ञान, सामान्य- विशेष सबको जानता है । सम्यग्ज्ञान, पर्याय को और निमित्त को भी जानता है, सम्यग्दर्शन को भी जाननेवाला सम्यग्ज्ञान ही है ।
श्रद्धा और ज्ञान कब सम्यक् हुए ? : -
उदय, उपशम, क्षयोपशम अथवा क्षायिकभाव इत्यादि कोई भी सम्यग्दर्शन का विषय नहीं हैं, क्योंकि वे सब पर्यायें हैं। सम्यग्दर्शन का विषय परिपूर्ण द्रव्य है। पर्याय को सम्यग्दर्शन स्वीकार नहीं करता, मात्र वस्तु का जब लक्ष्य किया, तब श्रद्धा सम्यक् हुई, परन्तु ज्ञान सम्यक् कब हुआ ? ज्ञान का स्वभाव सामान्य -विशेष सबको जानना है, जब ज्ञान ने सारे द्रव्य को, प्रगट पर्याय को और विकार को तदवस्थ (यथार्थ) जानकर इस प्रकार का विवेक किया कि 'जो परिपूर्ण स्वभाव है, सो मैं हूँ और जो विकार है, सो मैं नहीं हूँ', तब वह सम्यक् हुआ । सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शनरूप प्रगट पर्याय को, सम्यग्दर्शन की विषयभूत परिपूर्ण वस्तु को तथा अवस्था की कमी को यथार्थ जानता है।
ज्ञान में अवस्था की स्वीकृति है । इस प्रकार सम्यग्दर्शन तो एक निश्चय को ही (अभेदस्वरूप को ही) स्वीकार करता है और सम्यग्दर्शन का अविनाभावी (साथ ही रहनेवाला) सम्यग्ज्ञान, निश्चय और व्यवहार दोनों को बराबर जानकर विवेक करता है । यदि निश्चय-व्यवहार दोनों को न जाने तो ज्ञान प्रमाण (सम्यक् ) नहीं हो सकता। यदि व्यवहार का लक्ष्य करे तो दृष्टि खोटी
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