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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
-विकल्परहित स्वरूप है; इसलिए जो वृत्ति उठती है, को नहीं बदल सकती है ।
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वह श्रद्धा
जो विकल्प में ही अटक जाता है, वह मिथ्यादृष्टि है । विकल्परहित होकर अभेद का अनुभव करना, वह सम्यग्दर्शन है और यही समययार है। यही बात निम्नलिखित गाथा में कही है -
कम्मं बद्धमबद्धं जीवे एवं तु जाण णय पक्खं । पक्खाति क्वंतो पुण भण्णदि जो सो समयसारो ॥
॥ 42 ॥ समयसार
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'आत्मा कर्म से बद्ध है या अबद्ध' इस प्रकार दो भेदों के विचार में लगना, वह नय का पक्ष है । 'मैं आत्मा हूँ, पर से भिन्न हूँ;' इस प्रकार का विकल्प भी राग है । इस राग की वृत्ति को 'नय के पक्ष को' – उल्लंघन करे तो सम्यग्दर्शन प्रगट हो ।
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'मैं बँधा हुआ हूँ अथवा मैं बन्धरहित मुक्त हूँ' इस प्रकार की विचारश्रेणी को उल्लंघन करके, जो आत्मा का अनुभव करता है, वह सो सम्यग्दृष्टि है और वही समयसार अर्थात् शुद्धात्मा है । मैं अबन्ध हूँ; बन्ध मेरा स्वरूप नहीं है; इस प्रकार के भङ्ग की विचारश्रेणी के कार्य में जो लगता है, वह अज्ञानी है और उस भङ्ग के विचार को उल्लंघन करके अभङ्गस्वरूप को स्पर्श करना (अनुभव करना), वह प्रथम आत्मधर्म, अर्थात् सम्यग्दर्शन है। मैं पराश्रयरहित अबन्ध, शुद्ध हूँ – ऐसे निश्चयनय के पक्ष का जो विकल्प है, वह राग है और उस राग में जो अटक जाता है, (राग को ही सम्यग्दर्शन मान लें; किन्तु रागरहित स्वरूप का अनुभव न करे), वह मिथ्यादृष्टि है।
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