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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
[177 की तो बात ही क्या है ? अहो! परम शुद्धस्वभाव के भान में मुनि की शुभवृत्ति को भी जो विष मानता है, वह अशुभभाव को कैसे भला मान सकता है ? जो स्वभाव के भान में, शुभवृत्ति को भी विष मानता है, वह जीव, स्वभाव के बल से शुभवृत्ति को तोड़कर पूर्ण शुद्धता प्रगट करेगा, परन्तु वह अशुभ को तो कदापि आदरणीय नहीं मानेगा।
सम्यग्दृष्टि जीव, श्रद्धा की अपेक्षा से तो अपने को सम्पूर्ण परमात्मा ही मानते हैं, तथापि चारित्र की अपेक्षा से अपूर्ण पर्याय होने से तृणतुल्य मानने हैं, अर्थात् वह यह जानकर कि अभी अनन्त अपूर्णता विद्यमान है, स्वभाव की स्थिरता के प्रयत्न से उसे टालना चाहता है। ज्ञान की अपेक्षा से जितना राग है, उसका सम्यग्दृष्टि ज्ञाता है, किन्तु राग को निर्जरा अथवा मोक्ष का कारण नहीं मानता और ज्यों-ज्यों पर्याय की शुद्धता बढ़ाने पर, राग दूर होता जाता है, त्यो-त्यों उसका ज्ञान करता है। इस प्रकार श्रद्धा, ज्ञान और चारित्र -इन तीनों की अपेक्षा से इस स्वरूप को समझना चाहिए।
अमृत पान करो! श्री आचार्यदेव कहते हैं कि हे भव्य जीवों! तुम इस सम्यग्दर्शनरूपी अमृत को पियो ! यह सम्यग्दर्शन अनुपम सुख का भण्डार है – सर्व कल्याण का बीज है और संसार समुद्र से पार उतरने के लिए जहाज है; एकमात्र भव्य जीव ही उसे प्राप्त कर सकते हैं। पापरूपी वृक्ष को काटने के लिए यह कुल्हाड़ी के समान है। पवित्र तीर्थों में यही एक पवित्र तीर्थ है और मिथ्यात्व का नाशक है।
-ज्ञानाणर्व अ० 6 श्लोक 59
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