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श्रद्धा-ज्ञान और परम चारित्र की
भिन्न-भिन्न अपेक्षायें
सम्यग्दर्शन की परम महिमा है। दृष्टि की महिमा बताने के लिये सम्यग्दृष्टि के भोग को भी निर्जरा का कारण कहा है। समयसार, गाथा 193 में कहा है कि सम्यग्दृष्टि जीव, जिन इन्द्रियों के द्वारा
चेतन तथा अचेतन द्रव्य का उपभोग करता है, वह सब निर्जरा का निमित्त है और उसी में मोक्ष अधिकार में छठे गुणस्थान में मुनि के जो प्रतिक्रमणादि की शुभवृत्ति उद्भुत होती है, उसे विष कुम्भ कहा है। सम्यग्दृष्टि की अशुभभावना को निर्जरा का कारण और मुनि की शुभभावना को विष कहा है। -इसका समन्वय किस तरह हो सकता है?
जहाँ सम्यग्दृष्टि के भोग को निर्जरा का कारण कहा है, वहाँ यह कहने का तात्पर्य नहीं है कि भोग अच्छे हैं, किन्तु वहाँ दृष्टि की महिमा बताई है 'अबन्धस्वभाव की दृष्टि का बल, बन्ध को स्वीकार नहीं करता', उसकी महिमा बताई गयी है, अर्थात् दृष्टि की अपेक्षा से वह बात कही है। जहाँ मनि की व्रतादि की शुभभावना को विष कहा है, वहाँ चारित्र की अपेक्षा से कथन है। हे मुनि! तूने शुद्धात्म-चारित्र अङ्गीकार किया है, परम केवलज्ञान की उत्कृष्ट साधकदशा प्राप्त की है और अब जो व्रतादि की वृत्ति उत्पन्न होती है, वह तेरे शुद्धात्म-चारित्र को और केवलज्ञान को रोकनेवाली है; इसलिए वह विष है।
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