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अपूर्व पुरुषार्थ
जिसने सम्यग्दर्शन प्रगट करने का पूर्व में कभी नहीं किया, ऐसा अनन्त सम्यक् पुरुषार्थ करके सम्यग्दर्शन प्रगट किया है और इस प्रकार सम्पूर्ण स्वरूप का साधक हुआ है, वह जीव किसी भी संयोग में भय से, लज्जा से, लालच से अथवा किसी भी कारण से असत् को पोषण नहीं देता...... इसके लिए कदाचित् किसी समय देह छूटने तक की भी प्रतिकूलता आ जाए तो भी वह सत् से च्युत नहीं होता; असत् का कभी आदर नहीं करता । स्वरूप के साधक निःशङ्क और निडर होते हैं । सत् स्वरूप की श्रद्धा के बल में और सत् के माहात्म्य के निकट उन्हें किसी प्रकार की प्रतिकूलता है ही नहीं । यदि सत् से किञ्चित्मात्र च्युत हों तो उन्हें प्रतिकूलता आयी कहलाये, परन्तु जो प्रतिक्षण सत् में विशेष - विशेष दृढ़ता कर रहे हैं, उन्हें तो अपने असीम पुरुषार्थ के निकट जगत में कोई भी प्रतिकूलता ही नहीं है । वे तो परिपूर्ण सत् स्वरूप के साथ अभेद हो गये हैं । उन्हें डिगाने के लिये त्रिलोक में कौन समर्थ है ? अहो ! धन्य है ! ऐसे स्वरूप के साधकों को !!
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Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.