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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 उत्तर – इस प्रश्न का उत्तर उपरोक्त कथन में आ गया है। 'त्याग नहीं करना चाहिए' यह बात उपरोक्त कथन में कहीं भी नहीं है, प्रत्युत इस कथन में यह बताया है कि त्याग का फल मोक्ष और अत्याग का फल संसार, किन्तु त्याग किसका? मिथ्यात्व का या परवस्तु का? मिथ्यात्व के ही त्याग का फल मोक्ष है। परवस्तु का ग्रहण अथवा त्याग कोई कर ही नहीं सकता, तब फिर परवस्तु के त्याग का प्रश्न कहाँ से उठ सकता है ? बाह्य में जो परद्रव्य का त्याग हुआ, उसका फल आत्मा को नहीं है। पहले यथार्थ ज्ञान के द्वारा परद्रव्य में कर्तृत्व की बुद्धि को छोड़कर, उस समय में ही अनन्त परद्रव्य के स्वामित्व का त्याग होता है। पर में कर्तृत्व की मान्यता का त्याग करने के बाद जिस-जिस प्रकार के रागभाव का त्याग करता है, उस-उस प्रकार के बाह्य निमित्त स्वतः ही दूर हो जाते हैं। बाह्य निमित्तों के दूर हो जाने का फल आत्मा को नहीं मिलता, किन्तु भीतर जो रागभाव का त्याग किया, उस त्याग का फल आत्मा को मिलता है।
इससे स्पष्टतया यह निश्चय होता है कि सर्व प्रथम 'कोई परद्रव्य मेरा नहीं है और मैं किसी परद्रव्य का कर्ता नहीं हूँ' – इस प्रकार दृष्टि में (अभिप्राय में, मान्यता में) सर्व परद्रव्य के स्वामित्व का त्याग हो जाना चाहिए; जब ऐसी दृष्टि होती है, तभी त्याग का प्रारम्भ होता है, अर्थात् सर्व प्रथम मिथ्यात्व का ही त्याग होता है। जब तक ऐसी दृष्टि नहीं होती और मिथ्यात्व का त्याग नहीं होता, तब तक किञ्चित्मात्र भी सच्चा त्याग नहीं होता; और सच्ची दृष्टिपूर्वक मिथ्यात्व का त्याग करने के बाद क्रमशः ज्यों-ज्यों स्वरूप की स्थिरता के द्वारा राग का त्याग करता है, त्यों-त्यों
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