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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 को सङ्कोच कर; अर्थात्, मर्यादा में लाकर स्वसन्मुख करना चाहिए। यही अन्तर अनुभव का पन्थ है और यही सहज शीतलस्वरूप, अनाकुल स्वभाव की छाया में बैठने का द्वार है। पहले मैं ज्ञानस्वभावी आत्मा हूँ - ऐसा यथार्थ निर्णय करके, तत्पश्चात् आत्मा का प्रगट अनुभव करने के लिए परसन्मुख ढलते मति और श्रुतज्ञान को स्व तरफ एकाग्र करना। जो ज्ञान, विकल्प में अटकता था, उस ज्ञान को वहाँ से हटाकर स्वभावसन्मुख करना चाहिए। ज्ञान को आत्मसन्मुख करने से स्वभाव का अनुभव होता है। ज्ञान में भव नहीं है :
जिसने मन के अवलम्बन से प्रवर्तमान ज्ञान को मन से छुड़ाकर स्वसन्मुख किया है; अर्थात्, मतिज्ञान पर तरफ झुकता था, उसे मर्यादा में लेकर आत्मसन्मुख किया है, उसके ज्ञान में अनन्त संसार का नास्तिभाव और ज्ञानस्वभाव का अस्तिभाव है। ऐसी समझ और ऐसा ज्ञान करने में अनन्त पुरुषार्थ है। स्वभाव में भव नहीं है; इसलिए जिसके स्वभाव की ओर का पुरुषार्थ जागृत हुआ है, उसे भव की शङ्का नहीं रहती। जहाँ भव की शङ्का है, वहाँ सच्चा ज्ञान नहीं है और जहाँ सच्चा ज्ञान है, वहाँ भव की शङ्का नहीं है। इस प्रकार ज्ञान और भव की एक-दूसरे में नास्ति है।
पुरुषार्थ के द्वारा सत्समागम से अकेले ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय करने के पश्चात्, मैं अबन्ध हूँ या बन्धवाला हूँ; शुद्ध हूँ या अशुद्ध हूँ; त्रिकाल हूँ या क्षणिक हूँ ? – इत्यादि जो वृत्तियाँ उत्पन्न होती है, उनमें भी अभी आत्मशान्ति नहीं है। वे वृत्तियाँ, आकुलतामय हैं, आत्मशान्ति की विरोधी हैं। नयपक्ष के अवलम्बन से होनेवाले मन सम्बन्धी अनेक प्रकार के विकल्पों को भी मर्यादा
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