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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 वे स्वयं अपने ज्ञानस्वभाव का निर्णय भूले हैं; इसलिए दु:खी हैं। यदि वे स्वयं निर्णय करें तो उनका दु:ख दूर हो जाए। मैं किसी को बदलने में समर्थ नहीं हूँ, मैं परजीवों के दुःखों को दूर नहीं कर सकता, क्योंकि दुःख उन्होंने अपनी भूल से किया है। इसलिए वे यदि अपनी भूल को दूर करें तो उनका दुःख दूर हो सकता है। ज्ञान का स्वभाव किसी पर के लक्ष्य से अटकना नहीं है। पहले जो श्रुतज्ञान का अवलम्बन बताया है, उसमें पात्रता आ चुकी है; अर्थात्, श्रुत के अवलम्बन से आत्मा का अव्यक्त निर्णय हो चुका है। तत्पश्चात् प्रगट अनुभव कैसे होता है ? वह अब कहते हैं।
सम्यग्दर्शन से पूर्व श्रुतज्ञान के अवलम्बन के बल से आत्मा के ज्ञानस्वभाव को अव्यक्तरूप से लक्ष्य में लिया है। अब, प्रगटरूप में लक्ष्य में लेते हैं, अनुभव करते हैं, आत्मसाक्षात्कार; अर्थात्, सम्यग्दर्शन करते हैं । वह कैसे? उसकी बात यहाँ कहते हैं।
'पश्चात् आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लिये परपदार्थ को प्रसिद्धि की कारण जो इन्द्रिय और मन के द्वारा प्रवर्तमान बुद्धियाँ हैं, उनको मर्यादा में लेकर जिसने मतिज्ञान तत्त्व को आत्मसन्मुख किया है...'अप्रगटरूप निर्णय हुआ था, वह अब प्रगटरूप कार्य को लाता है; जो निर्णय किया था, उसका फल प्रगट होता है।
यह ज्ञानस्वभावी आत्मा का निर्णय जगत् के सभी आत्माएँ कर सकते हैं। सभी आत्माएँ परिपूर्ण भगवान ही हैं; इसलिए सब अपने ज्ञानस्वभाव का निर्णय कर सकने में समर्थ हैं। जो आत्मा का हित करना चाहता है, उसे वह हो सकता है, किन्तु अनादि काल से अपनी परवाह नहीं की है। हे भाई! तू कौन सी वस्तु है ? यह जाने बिना तू क्या करेगा? पहले इस ज्ञानस्वभावी आत्मा का
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