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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
I
पहचानकर, उनका आदर करे और यदि यह सब स्वभाव के लक्ष्य से हुआ हो तो उस जीव के पात्रता हुई कही जा सकती है । देखो; इतनी पात्रता भी अभी सम्यग्दर्शन का मूल कारण नहीं है सम्यग्दर्शन का मूल कारण तो चैतन्यस्वभाव का लक्ष्य करना है परन्तु पहले कुदेवादि का सर्वथा त्याग तथा सच्चे देव-गुरु-शास्त्र और सत्समागम का प्रेम तो पात्र जीवों को होता ही है। ऐसे पात्र जीवों को आत्मा का स्वरूप समझने के लिए क्या करना चाहिए ? यह इस समयसार, गाथा 144 की टीका में स्पष्टरूप से बतलाया है।
'पहले श्रुतज्ञान के अवलम्बन से ज्ञानस्वभावी आत्मा का निश्चय करके, पश्चात् आत्मा की प्रगट प्रसिद्धि के लिए परपदार्थ की प्रसिद्धि के कारण जो इन्द्रियों के और मन के द्वारा प्रवर्तमान बुद्धि है, उसे मर्यादा में लाकर, जिसने मतिज्ञान तत्त्व को आत्मसन्मुख किया है ऐसा, तथा नाना प्रकार के पक्षों के अवलम्बन से होनेवाले अनेक विकल्पों के द्वारा आकुलता को उत्पन्न करनेवाली श्रुतज्ञान की बुद्धियों को भी मर्यादा में लाकर श्रुतज्ञान तत्त्व को भी आत्मसन्मुख करता हुआ, अत्यन्त विकल्परहित होकर तत्काल परमात्मरूप समयसार का जब आत्मा अनुभव करता है, उस समय ही आत्मा सम्यक्तया दिखाई देता है (अर्थात्, श्रद्धा की जाती है) और ज्ञात होता है; इसलिए समयसार ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है।'
अब, यहाँ इसका स्पष्टीकरण किया जाता है ।
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