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( सम्यग्दृष्टि का अन्तरपरिणमन! ) चिन्मूरत दृगधारी की मोहं रीति लगत है अटापटी। बाहिर नारकिकृत दुख भोगे, अन्तर सुखरस गटागटी। रमत अनेक सुरनि संग पैतिस, परनति नित हटाहटी॥चिन्मू.॥ ज्ञान-विराग शक्ति तैं विधिफल, भोगत पै विधि घटाघटी। सदन निवासी तदपि उदासी, तारौं आस्रव छटाछटी॥चिन्मू.॥ जे भवहेतु अबुध के ते तस, करत बन्ध की झटाझटी। नारक पशु तिय, षंड विकलत्रय, प्रकृतिन की लै कटाकटी॥चिन्मू.॥ संयम धर न सकै पै संयम, धारन को उर चटाचटी। तासु सुयश गुन को दौलत' को लगी रहे नित रटारटी॥चिन्मू.॥
"सम्यक्त्व प्रभु है" सम्यक्त्व वास्तव में प्रभु है, इससे वह परम आराध्य है; क्योंकि उसी के प्रसाद से सिद्धि प्राप्त होती है और उसी के निमित्त से मनुष्य का ऐसा माहात्म्य प्रगट होता है कि जिससे वह जीव, जगत पर विजय प्राप्त कर लेता है – अर्थात् सर्वज्ञ होकर समस्त जगत को जानता है। सम्यक्त्व की ऐसी महिमा है कि उससे समस्त सुखों की प्राप्ति होती है।
अधिक क्या कहा जाए ! भूतकाल में जितने नरपुंगव सिद्ध हुए हैं और भविष्य में होंगे, वह सब इस सम्यक्त्व का ही प्रताप
-अनगार धर्मामृत
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