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सम्यग्दर्शन : भाग-1]
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अहो! जगत को वस्त्र, मकान, धन आदि में बड़प्पन ज्ञात होता है, परन्तु जो जगत का कल्याण कर रहे हैं, ऐसे देव-शास्त्रगुरु के प्रति भक्ति-समर्पणभाव उत्पन्न नहीं होता। उसके बिना उद्धार की कल्पना भी कैसी?
प्रश्न – आत्मा के स्वरूप में राग नहीं है, फिर भी देव -शास्त्र-गुरु के प्रति शुभराग करने के लिए क्यों कहते हैं ?
उत्तर – जैसे, किसी म्लेच्छ को माँस छुड़ाने का उपदेश देने के लिये म्लेच्छभाषा का भी प्रयोग करना पड़ता है, किन्तु उससे ब्राह्मण का ब्राह्मणत्व नष्ट नहीं हो जाता; उसी प्रकार सम्पूर्ण राग छुड़ाने के लिए उसे अशुभराग से हटाकर देव-गुरु-धर्म के प्रति शुभराग करने को कहा जाता है। (वहाँ राग कराने का हेतु नहीं है, किन्तु राग छुड़ाने का हेतु है। जितना राग कम हुआ, उतना ही प्रयोजन है। राग रहे, यह प्रयोजन नहीं है।)
उसके बाद देव-शास्त्र-गुरु का शुभराग भी मेरा स्वरूप नहीं है;' इस प्रकार राग का निषेध करके, वीतरागस्वरूप की श्रद्धा करने लगता है। __हे प्रभु! पहले जिनने प्रभुता प्रगट की है, जब तक ऐसे देवगुरु की भक्ति-बड़प्पन न आवे और जगत का बड़प्पन दिखायी दे, तब तक तेरी प्रभुता प्रगट नहीं होगी। देव-शास्त्र-गुरु की व्यवहार श्रद्धा तो जीव अनन्त बार कर चुका, परन्तु इस आत्मा की श्रद्धा अनन्त काल से नहीं की है – परमार्थ को नहीं समझा है। शुभराग में अटक गया है।
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