________________
www.vitragvani.com
120]
[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
स्वभाव की प्रतीति नहीं है और जहाँ स्वभाव की प्रतीति है, वहाँ पीछे गिरने की शङ्का नहीं होती । जिसने अरहन्त जैसे ही अपने स्वभाव का विश्वास करके क्रमबद्धपर्याय और केवलज्ञान को स्वभाव में अन्तर्गत किया है, उसे क्रमबद्धपर्याय में केवलज्ञान होता है । जो दशा अरहन्त भगवान के प्रगट हुई है, वैसी ही दशा मेरे स्वभाव में है । अरहन्त के जो दशा प्रगट हुई है, वह उनके अपने स्वभाव में से ही प्रगट हुई है । मेरा स्वभाव भी अरहन्त जैसा है; उसी में से मेरी शुद्धदशा प्रगट होगी। जिसे अपनी अरहन्तदशा की ऐसी प्रतीति नहीं होती, उसे अपने सम्पूर्ण द्रव्य की ही प्रतीति नहीं होती । यदि द्रव्य की प्रतीति हो तो द्रव्य की क्रमबद्धदशा विकसित होकर जो अरहन्तदशा प्रगट होती है, उसकी प्रतीति होती है ।
I
मेरे द्रव्य में से अरहन्तदशा आनेवाली है, उसमें पर कोई विघ्न नहीं है। कर्म का तीव्र उदय आकर मेरे द्रव्य की शुद्धदशा को रोकने के लिये समर्थ नहीं है, क्योंकि मेरे स्वभाव में कर्म की नास्ति ही है। जिसे ऐसी शङ्का है कि 'आगे जाकर यदि तीव्र कर्म का उदय आया तो गिर जाऊँगा', उसने अरहन्त को स्वीकार नहीं किया है। अरहन्त अपने पुरुषार्थ के बल से कर्म का क्षय करके पूर्णदशा को प्राप्त हुए हैं; उसी प्रकार मैं भी अपने पुरुषार्थ के बल से ही कर्म का क्षय करके पूर्णदशा को प्राप्त होऊँगा, बीच में कोई विघ्न नहीं है ।
'जो अरहन्त की प्रतीति करता है, वह अवश्य अरहन्त होता
है।'
( गाथा 80 की टीका समाप्त)
o
Shree Kundkund - Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.