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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
- प्रारम्भिक कर्तव्य
अरहन्त भगवान के द्रव्य-गुण- पर्याय को भलीभाँति जान लेना ही धर्म है। अरहन्त भगवान के द्रव्य - गुण- पर्याय को जाननेवाला जीव, अपने आत्मा को भी जानता है । उसे जाने बिना दया, भक्ति, पूजा, तप, व्रत, ब्रह्मचर्य या शास्त्राभ्यास इत्यादि सब कुछ करने पर भी धर्म नहीं होता और मोह दूर नहीं होता; इसलिए पहले अपने ज्ञान के द्वारा अरहन्त भगवान के द्रव्य-गुण-पर्याय का निर्णय करना चाहिए, यही धर्म करने के लिये प्रारम्भिक कर्तव्य है। पहले द्रव्य-गुण-पर्याय का स्वरूप बताया है । अरहन्त के द्रव्य-गुण- पर्याय को जाननेवाला जीव, अपने द्रव्य-गुणपर्यायमय आत्मा को जान लेता है यह बात अब यहाँ कही जाती है। “सर्वतः विशुद्ध भगवान अरहन्त में (अरहन्त के स्वरूप को ध्यान में रखकर ) जीव तीनों प्रकार के समय को (द्रव्य-गुण- पर्यायमय निज आत्मा को ) अपने मन के द्वारा जान लेता है ।" ( - गाथा 80 की टीका) अरहन्त भगवान का स्वरूप सर्वतः विशुद्ध है, अर्थात् वे द्रव्य से, गुण से और पर्याय से सम्पूर्ण शुद्ध हैं; इसलिए द्रव्य -गुणपर्याय से उनके स्वरूप को जानने पर, उस जीव के समझ में आ जाता है कि अपना स्वरूप द्रव्य से, गुण से, पर्याय से कैसा है
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इस आत्मा का और अरहन्त का स्वरूप परमार्थतः समान है; इसलिए जो अरहन्त के स्वरूप को जानता है, वह अपने स्वरूप को जानता है और जो अपने स्वरूप को जानता है, उसके मोह का क्षय हो जाता है।
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