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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
पर्यायरूपी लहरें (भाव) बदलती रहती हैं, उनके बदलने पर एक-एक भाव के बराबर आत्मा नहीं है, किन्तु सभी भावों में लगातार स्थिर रहनेवाला आत्मा है। त्रिकाल स्थिर रहनेवाले आत्मद्रव्य के आधार से पर्यायें परिणमित होती हैं। जो पहले और बाद के सभी परिणामों में स्थिर बना रहता है, वह द्रव्य है । परिणाम तो प्रति समय एक के बाद एक नये-नये होते हैं। सभी परिणामों में लगातार एक-सा रहनेवाला द्रव्य है । पहले भी वही था और बाद में भी वही है इस प्रकार पहले और बाद का जो एकत्व है, सो अन्वय है और जो अन्वय है, सो द्रव्य है ।
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अरहन्त के सम्बन्ध में पहले अज्ञानदशा थी, फिर ज्ञानदशा प्रकट हुई; इस अज्ञान और ज्ञान दोनों दशाओं में जो स्थिररूप में विद्यमान है, वह आत्मद्रव्य है । जो आत्मा पहले अज्ञानरूप था, वही अब ज्ञानरूप है । इस प्रकार पहले और बाद के जोड़रूप जो पदार्थ है, वह द्रव्य है। पर्याय पहले और पश्चात् की जोड़रूप नहीं होती, वह तो पहले और बाद की अलग-अलग (व्यतिरेकरूप) होती है और द्रव्य पूर्व-पश्चात् के सम्बन्धरूप (अन्वयरूप) होता है। जो एक अवस्था है, वह दूसरी नहीं होती और जो दूसरी अवस्था है, वह तीसरी नहीं होती; इस प्रकार अवस्था में पृथक्त्व है, किन्तु जो द्रव्य पहले समय में था, वही दूसरे समय में है और जो दूसरे समय में था, वह तीसरे समय में है; इस प्रकार द्रव्य में लगातार सादृश्य है।
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जैसे सोने की अवस्था की रचनाएँ अनेक प्रकार की होती हैं, उसमें अँगूठी के आकार के समय कुण्डल नहीं होता और कुण्डलरूप आकार के समय कड़ा नहीं होता; इस प्रकार प्रत्येक
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