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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [93 का निर्णय किया कि अनन्त परद्रव्य का कर्तृत्व हट गया, यही धर्म है। ज्ञान में से पर का कर्तृत्व हट गया; इसलिए अब ज्ञान में ही स्थिर होना होता है और पर के लक्ष्य से जो विकारभाव होता है, उसका कर्तृत्व भी नहीं रहता। मात्र ज्ञातारूप से रहता है, यही मोहक्षय का उपाय है। जिसने अरहन्त के स्वरूप को जाना, वह सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा है और वह जैनी है। जैसा जिनेन्द्र अरहन्त का स्वभाव है, वैसा ही अपना स्वभाव है - ऐसा निर्णय करना, सो जैनत्व है और फिर स्वभाव की एकाग्रता के पुरुषार्थ के द्वारा वैसी पूर्णदशा प्रगट करना, सो जिनत्व है। अपना निजस्वभाव जाने बिना जैनत्व नहीं हो सकता। जिसने अरहन्त के द्रव्य, गण, पर्याय को जान लिया, उसने यह निश्चय कर लिया है कि मैं अपने द्रव्य, गुण, पर्याय की एकता के द्वारा राग के कारण से जो पर्याय की अनेकता होती है, उसे दूर करूँगा, तभी मुझे सुख होगा। इतना निश्चय किया कि उसकी यह सब विपरीत मान्यतायें छूट जाती हैं कि मैं पर का कुछ कर सकता हूँ अथवा विकार से धर्म होता है। अब स्वभाव के बल से स्वभाव में एकाग्रता करके स्थिर होना होता है, तब फिर उसके मोह कहाँ रह सकता है ? मोह का क्षय हो ही जाता है। मेरे आत्मा में स्वभाव के लक्ष्य से जो निर्मलता का अंश प्रगट हुआ है, वह निर्मलदशा बढ़ते-बढ़ते किस हद तक निर्मलरूप में प्रगट होती है? जो अरहन्त के बराबर निर्मलता प्रगट होती है, वह मेरा स्वरूप है,यदि यह जान ले तो अशुद्धभावों से अपना स्वरूप भिन्न है, ऐसी शुद्धस्वभाव की प्रतीति करके दर्शनमोह का उसी समय क्षय कर दे, अर्थात् वह सम्यग्दृष्टि हो जाए; इसलिए अरहन्त भगवान के Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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