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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 अरहन्त का निर्णय करने में सम्पूर्ण स्वभाव प्रतीति में आ जाता है। अरहन्त भगवान के जो पूर्ण निर्मलदशा प्रगट हुई है, वह कहाँ से हुई है ? जहाँ थी, वहाँ से प्रगट हुई है या जहाँ नहीं थी, वहाँ से प्रगट हुई है ? स्वभाव में पूर्ण शक्ति थी, इसलिए स्वभाव के बल से वह दशा प्रगट हुई है। स्वभाव तो मेरे भी परिपूर्ण है, स्वभाव में न्यूनता नहीं है। बस! इस यथार्थ प्रतीति में द्रव्य-गुण की प्रतीति हो गयी और द्रव्य-गुण की ओर पर्याय झुकी तथा आत्मा के स्वभाव सामर्थ्य की दृष्टि हुई एवं विकल्प की अथवा पर की दृष्टि हट गयी। इस प्रकार इसी उपाय से सभी आत्मा अपने द्रव्य-गुणपर्याय पर दृष्टि करके क्षायिक सम्यक्त्व को प्राप्त होते हैं और इसी प्रकार सभी आत्माओं को केवलज्ञान होता है, सम्यक्त्व का दूसरा कोई उपाय नहीं है। अनन्त आत्मायें हैं, उनमें अल्प काल में मोक्ष जानेवाले या अधिक काल के पश्चात् मोक्ष जानेवाले सभी आत्मा इसी विधि से कर्मक्षय करते हैं। पूर्णदशा अपनी विद्यमान निज शक्ति में से आती है और शक्ति की दृष्टि करने पर, पर का लक्ष्य टूटकर स्व में एकाग्रता का ही भाव रहने पर क्षायिक सम्यक्त्व होता है।
यहाँ धर्म करने बात है। कोई आत्मा, परद्रव्य का तो कुछ कर ही नहीं सकता। जैसे अरहन्त भगवान सबकुछ जानते हैं; परन्तु परद्रव्य का कुछ भी नहीं करते। इसी प्रकार आत्मा भी ज्ञाता स्वभावी है, ज्ञानस्वभाव की प्रतीति ही मोहक्षय का कारण है। क्षणिक विकारी पर्याय में राग का कर्तव्य माने तो समझना चाहिए कि उस जीव ने अरहन्त के स्वरूप को नहीं माना। ज्ञान में अनन्त परद्रव्य का कर्तृत्व मानना ही महा अधर्म है और ज्ञान में अरहन्त
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