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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 भगवान् निमित्त कहे गये हैं, किन्तु जिनने निर्णय नहीं किया, उनके लिए तो साक्षात् अरहन्त भगवान निमित्त भी नहीं कहलाये। आज भी जो अरहन्त का निर्णय करके आत्मस्वरूप को समझते हैं, उनके लिए उनके ज्ञान में अरहन्त भगवान् निमित्त कहलाते हैं। वहाँ भी वे आत्मा को हाथ में लेकर नहीं दिखाते।
जिसकी दृष्टि निमित्त पर है, वह क्षेत्र को देखता है कि वर्तमान में इस क्षेत्र में अरहन्त नहीं है। हे भाई! अरहन्त नहीं हैं, किन्तु अरहन्त का निश्चय करनेवाला तेरा ज्ञान तो है ! जिसकी दृष्टि उपादान पर है, वह अपने ज्ञान के बल से अरहन्त का निर्णय करके क्षेत्रभेद को दूर कर देता है। अरहन्त तो निमित्त हैं। यहाँ अरहन्त का निर्णय करनेवाले ज्ञान की महिमा है। मूलसूत्र में जो जाणदि' कहा है, अर्थात् जाननेवाला ज्ञान, मोहक्षय का कारण है, किन्तु अरहन्त तो अलग ही हैं, वे इस आत्मा का मोहक्षय नहीं करते। मोहक्षय का उपाय अपने पास है।
समवसरण में बैठनेवाला जीव भी क्षेत्र की अपेक्षा से अरहन्त से तो दूर ही बैठता है, अर्थात् क्षेत्र की अपेक्षा से तो उसके लिए भी दूर ही हैं और यहाँ भी क्षेत्र से अधिक दूर हैं, किन्तु क्षेत्र की अपेक्षा से अन्तर पड जाने से भी क्या हआ? जिसने भाव में अरहन्त को अपने निकट कर लिया है, उसके लिए वे सदा निकट ही बिराजते हैं और जिसने भाव में अरहन्त को दूर किया है, उसके लिए दूर हैं । क्षेत्र की दृष्टि से निकट हों या न हों, इससे क्या होता है ? यहाँ तो भाव के साथ मेल करके निकटता करनी है। अहो! अरहन्त के विरह को भुला दिया है, तब फिर कौन कहता है कि अभी अरहन्त भगवान नहीं है।
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