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________________ www.vitragvani.com सम्यग्दर्शन : भाग-1] [87 मुझे परिपूर्ण स्वतन्त्र सुखदशा चाहिए है, सुख के लिये जैसी स्वतन्त्रदशा होनी चाहिए, वैसी पूर्ण स्वतन्त्रदशा अरहन्त के है और अरहन्त के समान ही सबका स्वभाव है; इसलिए मैं भी वैसा ही पूर्ण स्वभाववाला हूँ; इस प्रकार अपने स्वभाव की प्रतीति की भी उन्हीं के साथ मिलाकर बात कही गयी है। जिसने अपने ज्ञान में यह निश्चय किया, उसने सुख के लिये पराधीनदृष्टि की अनन्त उथल-पुथल को शमन कर दिया है। पहले अज्ञान से जहाँ-तहाँ उथल-पुथल करता था कि रुपये-पैसे से सुख प्राप्त कर लूँ, राग में से सुख ले लूँ, देव-गुरु-शास्त्र से सुख प्राप्त कर लूँ अथवा पुण्य करके सुख पा लूँ – इस प्रकार पर के लक्ष्य से सुख माना था, यह मान्यता दूर हो गयी है और मात्र अपने स्वभाव को ही सुख का साधन माना है; ऐसी समझ होने पर सम्यग्दर्शन होता है। सम्यक्त्व कैसे होता है, यह बात इस गाथा में कही गयी है। भगवान अरहन्त के न तो किञ्चित् पुण्य है और न पाप; वे पुण्य -पापरहित हैं; उनके ज्ञान, दर्शन, सुख में कोई कमी नहीं है; इसी प्रकार मेरे स्वरूप में भी पुण्य-पाप अथवा कोई कमी नहीं है, ऐसी प्रतीति करने पर द्रव्यदृष्टि हुई। अपूर्णता मेरा स्वरूप नहीं है, इसलिए अब अपूर्ण अवस्था की ओर देखने की आवश्यकता नहीं रही, किन्तु पूर्ण शुद्धदशा प्रगट करने के लिये स्वभाव में ही एकाग्रता करने की आवश्यकता रही। शुद्धदशा बाहर से प्रगट होती है या स्वभाव में से? स्वभाव में से प्रगट होनेवाली अवस्था को प्रगट करने के लिए स्वभाव में ही एकाग्रता करनी है। इतना जान लेने पर यह धारणा दूर हो जाती है कि किसी भी अन्य पदार्थ की सहायता से मेरा कार्य होता है। वर्तमान पर्याय में जो अपूर्णता है, Shree Kundkund-Kahan Parmarthik Trust, Mumbai.
SR No.007768
Book TitleSamyag Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
PublisherKundkund Kahan Parmarthik Trust Mumbai
Publication Year
Total Pages344
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size1 MB
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