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[सम्यग्दर्शन : भाग-1 में दुःख नहीं हो सकता; इस प्रकार जो अपने को द्रव्य-गुण स्वभाव से अरहन्त के समान ही माने तो वर्तमान राग से अपने लक्ष्य को हटाकर द्रव्य-गुण स्वभाव के प्रति लक्ष्य करे और अपने स्वभाव की एकाग्रता करके पर्याय के दुःख को दूर करे; ऐसा होने से जगत् के किसी भी जीव के पराधीनता नहीं है। मैं किसी अन्य जीव का अथवा जड़ पदार्थ का कुछ भी नहीं कर सकता। सम्पूर्ण पदार्थ स्वतन्त्र हैं। मुझे अपनी पर्याय का उपयोग अपनी ओर करना है, यही सुख का उपाय है। इसके अतिरिक्त जगत् में अन्य कोई सुख का उपाय नहीं है।
मैं देश आदि के कार्य कर डालूँ -ऐसी मान्यता भी बिलकुल मिथ्या है। इस मान्यता में तो तीव्र आकुलता का दुःख है। मैं जगत् के जीवों के दुःख को दूर कर सकता हूँ - ऐसी मान्यता निज को ही महान दु:ख का कारण है। पर को दुःख या सुख देने के लिए कोई समर्थ नहीं है । जगत् के जीवों को संयोग का दु:ख नहीं है; किन्तु अपने ज्ञानादि स्वभाव की पूर्णदशा को नहीं जाना, इसी का दु:ख है। यदि अरहन्त के आत्मा के साथ अपने आत्मा का मिलान करे तो अपना स्वभाव प्रतीति में आये। अहो! अरहन्तदेव किसी बाह्य संयोग से सुखी नहीं, किन्तु अपने ज्ञान इत्यादि की पूर्णदशा से ही वे सम्पूर्ण सुखी हैं। इसलिए सुख आत्मा का ही स्वरूप है; इस प्रकार स्वभाव को पहिचानकर, राग-द्वेष रहित होकर, परमानन्ददशा को प्रगट करे! अरहन्त के वास्तविक स्वरूप को नहीं जाना; इसलिए अपने स्वरूप को भी नहीं जाना और अपने स्वरूप को नहीं जाना, इसीलिए यह सब भूल होती है।
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