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[ सम्यग्दर्शन : भाग-1
आत्मा शक्तिस्वरूप से तो पूर्ण ही हैं, किन्तु यदि व्यक्तदशारूप में पूर्ण हों तो सुख प्रगट हो । जीवों को अपनी ही अपूर्णदशा के कारण दुःख है, वह दु:ख दूसरे के कारण से नहीं है; इसलिए अन्य कोई व्यक्ति, जीव का दुःख दूर नहीं कर सकता, किन्तु यदि जीव स्वयं अपनी पूर्णता को पहिचाने, तभी उसका दुःख दूर हो। इससे मैं किसी का दुःख दूर नहीं कर सकता और अन्य कोई मेरा दुःख दूर नहीं कर सकता – ऐसी स्वतन्त्रता की प्रतीति हुई और पर का कर्तृत्व दूर करके ज्ञातारूप में रहा, यही सम्यग्दर्शन का अपूर्व पुरुषार्थ है ।
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पूर्ण स्वरूप के अज्ञान के कारण ही अपनी पर्याय में दुःख है, उस दुःख को दूर करने के लिये, अरहन्त के द्रव्य-गुण-पर्याय का अपने ज्ञान के द्वारा निर्णय करना चाहिए। शरीर, मन, वाणी, पुस्तक, कर्म यह सब जड़ हैं – अचेतन हैं; वे सब आत्मा से बिलकुल भिन्न हैं। जो राग- - द्वेष होता है, वह भी वास्तव में मेरा नहीं है क्योंकि अरहन्त भगवान की दशा में राग-द्वेष नहीं है; राग के आश्रय से भगवान की पूर्णदशा नहीं हुई। भगवान की पूर्णदशा कहाँ से आई ? उनकी पूर्णदशा उनके द्रव्य-गुण के ही आधार से प्रगट हुई है; वैसे ही मेरी पूर्णदशा भी मेरे द्रव्य-गुण के ही आधार से प्रगट होती है । विकल्प का या पर का आधार मेरी पर्याय को भी नहीं है।‘अरहन्त जैसी पूर्णदशा मेरा स्वरूप है और अपूर्णदशा मेरा स्वरूप नहीं है, ' ऐसा मैंने जो निर्णय किया है, वह निर्णयरूप दशा मेरे द्रव्य-गुण के ही आधार से हुई है। इस प्रकार जीव का लक्ष्य अरहन्त के द्रव्य-गुण- पर्याय से हटकर अपने द्रव्य-गुण-पर्याय की ओर जाता है और वह अपने स्वभाव को प्रतीति में लेता है ।
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