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Ratnakarandaka-śrāvakācāra
देवेन्द्रचक्रमहिमानममेयमानम्
राजेन्द्रचक्रमवनीन्द्रशिरोर्चनीयम् । धर्मेन्द्रचक्रमधरीकृतसर्वलोकं
लब्ध्वा शिवं च जिनभक्तिरुपैति भव्यः ॥४१॥
सामान्यार्थ - जिनेन्द्रदेव का भक्त सम्यग्दृष्टि पुरुष अपरिमित प्रतिष्ठा अथवा ज्ञान से सहित इन्द्रसमूह की महिमा को, मुकुटबद्ध राजाओं के मस्तकों से पूजनीय चक्रवर्ती के चक्ररत्न को और समस्त लोक को नीचा करने वाले तीर्थंकर के धर्मचक्र को प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त होता है।
The bhavya (having the inherent capacity to attain liberation, and equipped with right faith) devotee of Lord Jina attains the supreme glory and knowledge appertaining to the congregation of the lords of the devas, the divine cakraratna of the king of kings (i.e., cakravartī) in front of whom the crowned kings must bow down, the divine wheel of dharma (dharmacakra) of the Tirthankara, and finally, liberation (moksa).
Thus ends the first part called
Right Faith of the Ratnakarandaka-śrāvakācāra, composed by Acārya Samantabhadra Svāmi.
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