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कापथे पथि दुःखानां कापथस्थेऽप्यसम्मतिः । असंपृक्तिरनुत्कीर्तिरमूढा दृष्टिरुच्यते ॥ १४ ॥
सामान्यार्थ - जो दृष्टि दुःखों के मार्ग स्वरूप मिथ्यादर्शनादि-रूप कुमार्ग में, और कुमार्ग में स्थित जीव में भी, मानसिक सम्मति से रहित, शारीरिक सम्पर्क (जैसे मस्तक हिलाकर सहमति प्रदान करना) से रहित, और वाचनिक प्रशंसा से रहित है, वह मूढ़ता-रहित दृष्टि अर्थात् अमूढदृष्टि नाम का अंग कहा जाता है।
The view that does not accord acceptance, through mental disposition, bodily action (like bowing down ), or words, to the path of wrong faith that surely leads to worldly sufferings, or to the person treading the path, is the fourth limb, being nondeluded (amūdhadrsti guna), of right faith.
EXPLANATORY NOTE
Verse 14
ācārya Amrtacandra's Purusārthasiddhyupāya: लोके शास्त्राभासे समयाभासे च देवताभासे । नित्यमपि तत्त्वरुचिना कर्तव्यममूढदृष्टित्वम् ॥ २६ ॥
A right believer should exhibit keen interest in the tattvas (substances) and not admire or have superstitious faith on ubiquitous scriptures, religious convictions, and deities in this world.
Jain, Vijay K. (2012), “Shri Amritachandra Suri's Purusārthasiddhyupāya”, p. 21.
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