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Ratnakarandaka-śrāvakācāra
विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः । ज्ञानध्यानतपोरक्तस्तपस्वी* सः प्रशस्यते ॥१०॥
सामान्यार्थ - जो विषयों की आशा के वश से रहित हो, आरम्भ रहित हो, परिग्रह रहित हो और ज्ञान, ध्यान तथा तप रूपी रत्नों से सहित हो अर्थात् इन तीनों में लवलीन हो, वह तपस्वी अर्थात् गुरु प्रशंसनीय है।
That preceptor or guru is laudable who is not controlled by the desires of the senses, who has renounced all worldly occupations, is without attachment or possessions, and is ever engaged in the trio of knowledge-acquisition, meditation, and austerity.
* पाठान्तर : ज्ञानध्यानतपोरत्नस्तपस्वी
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