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Ratnakarandaka-śrāvakācāra
presents himself again to the service of the pure Self. I repeatedly salute Acārya Vidyānanda, the light to guide me on the path that leads to true happiness, here and hereafter, by prostrating in front of him with great devotion. I meditate on his virtues in order to wash away from my soul impurities like attachment, aversion and delusion, and to reach the stage of spiritual excellence.
May 2016 Dehradun, India
Vijay K. Jain
References: 1. डॉ. पन्नालाल जैन (2004), आचार्य जिनसेन विरचित आदिपुराण (प्रथम भाग), दसवाँ संस्करण, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली-110003, पर्व 1, गाथा 43-44,
पृष्ठ 10. 2. डॉ. ए. एन. उपाध्ये, डॉ. हीरालाल जैन (1972), नरेन्द्रसेनाचार्यविरचितः
सिद्धान्तसारसंग्रहः, श्री लालचंद हिराचन्द दोशी, सोलापुर, द्वितीया आवृत्तिः, पृष्ठ 3. 3. पं. पन्नालाल वाकलीवाल (1913), श्रीशुभचन्द्रविरचितः ज्ञानार्णवः, श्रीपरमश्रुत
प्रभावक मण्डल, बम्बई-2, द्वितीयावृत्तिः, पृष्ठ 8. 4. डॉ. पन्नालाल जैन (2003), आचार्य जिनसेन विरचित हरिवंशपुराण, आठवाँ
संस्करण, भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली-110003, प्रथमः सर्गः, गाथा 29, पृष्ठ 3-4. 5. प्रो. उदयचन्द्र जैन (1993), आचार्य समन्तभद्र विरचित स्वयम्भूस्तोत्र की
तत्त्वप्रदीपिका व्याख्या, श्री गणेश वर्णी दि. जैन (शोध) संस्थान,
वाराणसी-221005, प्रस्तावना, पृष्ठ 18. 6. See पं. जुगलकिशोर मुख्तार (वि. सं. 1982), श्रीसमन्तभद्रस्वामिविरचितो
रत्नकरण्डक-श्रावकाचारः, मणिकचन्द्र दि. जैनग्रन्थमालासमितिः, बम्बई, प्राक्कथन, पृष्ठ 62-72.
7.ibid., p. 196.
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