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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
नहीं, खण्डित नहीं ऐसा कायोत्सर्ग हो । जहाँ तक (नमो अरिहंताणं बोल) अरिहंत भगवंतों को नमस्कार करने द्वारा (कायोत्सर्ग) न पारूं (पूर्ण कर छोडूं), तब तक स्थिरता, मौन व ध्यान रखकर अपनी काया को वोसिराता हूं (काया को मौन व ध्यान के साथ खडी अवस्था में छोड देता हूं)।
कायोत्सर्गका भंग कब कब नहीं होता, (१६ आगार - छूट) यह इस सूत्रका मुख्य विषय है | इस सत्रूमें कायोत्सर्गकी छूट,काल मर्यादा,स्वरुप और प्रतिज्ञाका वर्णन है । 'अन्नत्थ...हुइझमें काउस्सग्गो में कायोत्सर्गकी छूट है | 'जाव अरिहंताणं.....न पारेमि ताव' में कायोत्सर्गका समय है । 'कायं.....झाणेणं' कायोत्सर्गका स्वरुप है। 'अप्पाणं वोसिरामि' में कायोत्सर्गकी प्रतिज्ञा है।
(एक लोगस्सका 'चंदेसु निम्मलयरा’ तक का काउस्सग्ग, न आये तो चार नवकार करना । बादमें प्रगट लोगस्स बोलना।)
२४ तीर्थंकरोके नाम स्मरणकी स्तुति
लोगस्स उज्जोअगरे; मस धम्म तित्थयरे जिणे अरिहंते कित्तइस्सं चउवीसं पि केवली (१) उसभ, मजिअं च वंदे, संभव,
मभिणंदणं च सुमई च; पउमप्पह, सुपासं, जिणं च चंदप्पहं वंदे (२) सुविहिं च पुष्फदंतं, सीयल, सिज्जंस, वासुपूज्जं च विमल, मणंतं च जिणं, धम्म, संतिं च वंदामि (३) कुंथु, अरं च मल्लिं वंदे मुणिसुव्वयं, नमिजिणं च
वंदामि रिट्ठनेमि, पासं तह वद्धमाणं च (४)