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चैत्यवंदन विधि सहित
हे भगवंत । आपकी इच्छा से आदेश दें कि मैं ईर्यापथिकी (गमनादि व साध्वाचार में हुई विराधना ) का प्रतिक्रमण करूं ? (यहाँ गुरू कहे 'पडिक्कमेह) 'इच्छं' अर्थात् मैं आप का आदेश स्वीकार करता हूं । (१)
ईर्यापथिकी की विराधना से ( मिथ्यादुष्कृत द्वारा) वापस लौटना चाहता हूं । (२)
गमनागमन में, (३)
२
इन्द्रियवाले प्राणी को दबाने में, धान्यादि सचित (सजीव) बीज को दबाने तथा वनस्पति को दबाने में, ओस (आकाश पतित सूक्ष्म अपकाय जीव), चिंटी के बिल, पांचो वर्णों की निगोद (फूलन काई आदि) पानी व मिट्टी (या जल मिश्रित मिट्टी, सचित मिश्र कीचड) व मकडी के जाले को दबाने में, (8) मुझसे जो जीव दुखित हुएँ, (५)
( जीव इस प्रकार ) - एक इन्द्रिय वाले (पृथ्वीकायादि), दो इन्द्रिय वाले (शंख आदि), तीन इन्द्रिय वाले (चिंटी आदि) चार इन्द्रिय वाले (मक्खी आदि), पांच इन्द्रियवाले (मनुष्य आदि) (६) (विराधना इस प्रकार की) ढके (या उलटाये), भूमि आदि पर घिसा (घसीटे, या कुछ दबाये), परस्पर गात्रों से पिंडरूप किया, स्पर्श किया, संताप - पीडा दी, अंग भंग किया, मृत्यु जैसा दुःख दिया, अपने स्थान से दूसरे स्थान में हटाये, प्राण से रहित किये । उसका मेरा दुष्कृत (जो हुआ वह) मिथ्या हो । (७)
आते-जाते जीवोके विराधनाकी विषेश माफी
तस्स उत्तरीकरणेणं.
पायच्छित्तकरणेणं, विसोहीकरणेणं,