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इन दोनों पद का समावेश यात्रा पृच्छा स्थानमें होता है। ५.यापना-पृछा-स्थान
जवणि ज्जं च भे? - एवं हे भगवंत ! आपके इंद्रिय एवं कषायो वशमें वर्तन करते है ?
इंद्रियो एवं कषायो उपघात-रहित हो, अर्थात् बीचमें वर्तते हो तो 'यापनीय' कहा जाता है। बाह्य तप के 'संलीनता' नामक छठे प्रकरणमें इंद्रिय जय एवं कषायजय का खास विधान बताया गया है, इसलिए यह पृच्छा एक रुप से तप संबंधी ही मानी जाती है। ये शब्द भी उपर के दो पदों की तरह खास रुप से बोले जाते है। जो निन्म रुप से है:
ज - अनुदात्त स्वरे में | चरण-स्थापनाको स्पर्शते हुए। व- स्वरित स्वरे में । मध्यमें आये हुए हाथ सीधे करते हुए | णि - उदात्त स्वरे में । ललाट पर स्पर्शते हुए। ज्जं- अनुदात्त स्वरे में | चरण-स्थापनाको स्पर्शते हुए | च - स्वरित स्वरे में |मध्यमें आये हुए हाथ सीधे करते हुए। भे- उदात्त स्वरे में। ललाट पर स्पर्शते हुए।चित्र नं-३,४,५ गुए कहते है कि - 'हाँ, उसी तरह है।
पाँचवा यापना-पृच्छा-स्थान' यहाँ पर समाप्त होता है | ६.अपराध-क्षमापन-स्थान
खामेमि खमासमणो ! देवसि वइक्कम - हे क्षमाश्रमण ! दिन के दौरान हुए अपराधोंकी क्षमा चाहता हुँ।
शिष्यका क्षमापन सुनकर गुरु कहते है कि - 'मैं भी तुझे (दिन संबंधी प्रमादादि अपराधों) की क्षमा करता हुँ।'
इतनी विधि हो जाने के पश्चात् शिष्य पीछे के तीन संडासा (स्थल पर) प्रमार्जन करते हुए खडा होता है, एवं कहता है कि