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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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पच्चक्खाण (अगले दिन एवं पारणे के दिन एकासण करनेवाले को चतुर्थी - अब्भत्तह करना) करते है (करता हुँ)। इसमें तीन तरहके आहार का अर्थात् अशन (भूखको शांत करनेके लिए भात आदि द्रव्य), पान (सादा पानी),खादिम (भूना हुआ धान, फल आदि) एवं स्वादिम(दवाई-पानी के साथ) का
जिसमें जल का आहार एक प्रहर (पोरिसि) / डेढ़ प्रहर (साढ पोरिसि)/ मुट्ठिसहित पच्चक्खाण का अनाभोग (इस्तेमाल किये बिना विस्मृति हो जाने से किसी चीज को मुख में डाला जाये वह), सहसात्कार (अपने आप ही अचानक मुख में कोई चीज प्रवेश करे वह), पच्छन्नकाल (मेघ-बादल आदिसे घिरे समय काल का पता न चलना), दिग्मोह (दिशाका भ्रम होना), साधु-वचन ('बहुपडिपुन्ना पोरिस्'ि ऐसा पात्रा पडिलेहण के वक्त साधु भगवंत का वचन सुनने से पच्चक्खाण आ गया है, ऐसा समझ गये हो) महत्तराकार (बडी कर्मनिर्जराकी वजह आना वह) एवं सर्व-समाधिआगार (किसी भी तरीके से समाधि नहीं ही रहती तब) ईन छह आगारों का (छूट) को रखकर त्याग करते है (करता हुँ)। __ अचित जल के छह आगार लेप (ओसामण आदि लेप से बना हुआ (बरतनमें लेप रहता है वह) जल आदि) अलेप (कांजी (छाशकी आसका पानी) का अलेपकृत जल आदि), अच्छ (तीन काढ़ा वाला निर्मल गरम जल आदि), बहुलेप (चावल-फल आदिको धोना, जो बहुलेपकृत जल होता है वह), ससिक्थ (दानें के साथ अथवा आँटे के कण के साथ जल आदि एवं असिक्थ (कपड़े से छाना हुआ दानें या आटे के कण वाला जल आदि) का त्याग करत है (करता हुँ)।