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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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अक्षय, पीडारहित, अपुनरावृत्ति सिद्धिगति नाम के स्थान को प्राप्त, भयों के विजेता, जिनेश्वर भगवंतों को नमस्कार करता हूं |(९) जो (तीर्थंकरदेव) अतीत काल में सिद्ध हुए, व जो भविष्य काल में होंगे, एवं (जो) वर्तमान में विद्यमान हैं, (उन) सब को मनवचन-काया से वंदन करता हूं |(१०) स्वर्ग, पाताल और मनुष्यलोकमें रहेनेवाले जिनचैत्योकी वंदना
जावंति चेइयाई, उड्ढे अ अहे अतिरिअलोए अ |
___ सव्वाइं ताई वंदे,
इह संतो तत्थ संताई ।। (१) ऊर्ध्व (लोक) में, अधो (लोक) में व तिर्छालोक में जितने चैत्य (जिनमंदिर-जिनमूर्ति) हैं वहां रहे हुए उन सब को, यहां रहा हुआ मैं, वंदना करता हूं |(१)
जिन प्रतिमा आत्मबोधके लिए एक अगत्य साधन है । इस गाथा द्वारा जिन प्रतिमाके प्रति नि:सीम भक्ति प्रदर्शित की गई है |
देव-गुरुको पंचांग वंदन इच्छामि खमासमणो ! वंदिउं जावणिज्जाए निसीहियाए, में मत्थएण वंदामि (१)
मैं इच्छता हूं हे क्षमाश्रमण ! वंदन करने के लिए, सब शक्ति लगाकर व दोष त्याग कर मस्तक नमाकर मैं वंदन करता हूं | (१)