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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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विविध संबंधोसे श्री अजितनाथ प्रभुकी स्तुति इक्खाग ! विदेह ! नरीसर !
नर वसहा ! मुणि वसहा ! नव सारय ससि सकलाणण ! विगय तमा ! विहुअ रया ! अजि ! उत्तम-तेअ ! गुणेहिं महामुणि !
अमिअ बला ! विउल कुला ! पणमामि ते भव भय मूरण जग सरणा मम सरणं (१३)
चित्तलेहा विविध संबंधोसे श्री शांतिनाथ प्रभुकी स्तुति देव, दाण, विंद, चंद, सूर, वंद हह, तुट्ट जिह परम, लठ्ठ, रूव, धंत, रुप्प, पट्ट, सेय सुद्ध, निद्ध,
धवल दंत, पंति ! संति ! सत्ति कित्ति मुत्ति जुत्ति गुत्ति पवर, दित्ततेअवंद धेय सव्वलोअ भाविअप्पभाव णेय
पइस मे समाहिं | (१४) नारायओ हे इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न होनेवाले ! हे विशिष्ट देहवाले ! हे नरेश्वर ! हे नर-श्रेष्ठ ! हे मुनि-श्रेष्ठ ! हे शरद ऋतुके नवीन चन्द्र जैसे कलापूर्ण मुखवाले ! अज्ञान-रहित ! हे कर्म-रहित ! हे उत्तम तेजवाले ! (गुणोंसे) हे महामुनि ! हे अपरिमित बलवाले ! हे विशाल कुलवाले ! हे भवका भय नष्ट करनेवाले ! हे जगतके जीवोंको शरण देनेवाले अजितनाथ प्रभु ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ; क्योंकि आप ही मुझे शरणरूप हैं |(१३) । हे देवेन्द्र, दानवेन्द्र, चन्द्र तथा सूर्य द्वारा वन्दन करने योग्य ! हे आनन्द-स्वरूप ! (प्रसन्नता पूर्ण! ), हे अतिशय महान् ! हे परम