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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
सरण मुवसरिय भुवि दिवि ज महिअं सयय मुवणमे । (७) संगययं
श्री शांतिनाथकी स्तुति
तं च जिणुत्तममुत्तम नित्तम सत्तधरं, अज्जव मद्दव खंति विमुत्ति समाहि निहिं । संतिकरं पणमामि दमुत्तम तित्थयरं, संतिणी मम संति समाहि वरं दिसउ (c) सोवाणयं मैं भी विषाद और हर्षको उत्पन्न करनेवाले, अज्ञानसे रहित, जन्म, जरा और मृत्युसे निवृत्त; देव, असुरकुमार, सुपर्णकुमार, नागकुमार आदिके इन्द्रोंसे अच्छी तरह नमस्कार किये हुए; सुनयोंका प्रतिपादन करनेमें अतिकुशल, सर्व-प्रकारके भय और उपसर्गोंको दूर करनेवाले तथा मनुष्य और देवोंसे पूजित श्री अजितनाथका शरण स्वीकृत कर उनके चरणोंकी सेवा करता हूँ । (७) श्रेष्ठ और निर्दोष पराक्रमको धारण करनेवाले, सरलता, मृदुता, क्षमा, और निर्लोभता द्वारा समाधिके भण्डार; शान्ति करनेवाले; इन्द्रिय-दमनमें उत्तम और धर्मतीर्थके स्थापक ऐसे तीर्थंकरको मैं प्रणाम करता हूँ । हे शान्तिनाथ ! मुझे श्रेष्ठ समाधि देनेवाले बनो । (८)
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श्री अजितनाथकी स्तुति (नगर और शरीर रचनाका वर्णन ) सावत्थि पुव्व पत्थिवं च,
वरहत्थि मत्थय पसत्थ विच्छिन्न संथियं
थिर सरिच्छ वच्छं,
मयगल लीलायमाण वरगंधहत्थि