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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
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‘कषायोकी उपशांतिता' प्रतिक्रमणके मुख्य अंग में से एक है । और सर्व अंगोमें क्षमा मुख्य अंग है जिससे जीवनका सर्व व्यवहार शुद्ध, योग्य और आदर्श बनता है ।
सामायिक महासूत्र
करेमि भंते ! सामाइयं ! सावज्जं जोगं पच्चक्खामि | जाव नियमं पज्जुवासामि, दुविहं, तिविहेणं, मणेणं, वायाए, काणं न करेमि न कारवेमि तस्स भंते ! पडिक्कमामि, निंदामि, गरिहामि, अप्पाणं वोसिरामि । (9)
हे भगवंत ! मैं सामायिक करता हूं । प्रतिज्ञाबद्धत्त्तासे पापवाली प्रवृत्ति का त्याग करता हूं । (अतः) जब तक मैं (दो घडी के) नियम का सेवन करूं, (तब तक ) त्रिविधि से द्विविध (यानी) मनसे, वचन से, काया से, (सावद्य प्रवृत्ति) न करूंगा, न कराऊंगा । हे भगवंत ! (अब तक किये) सावद्य ( प्रवृत्ति) का प्रतिक्रमण करता हूं, (गुरु समक्ष) गर्हा करता हूं, (स्वयं ही) निंदा करता हूँ, ( ऐसी सावद्यभाववाली) आत्मा का त्याग करता हूं । (१)
(चरवला वाले खडे होकर, अर्धा अंग झूकाकर हाथ जोडकर बोले, बाकीके बैठके बोले ।)
श्रावकके बारह व्रत संबंधी लगे अतिचारोकी क्षमायाचना
इच्छामि ठामि काउस्सग्गं, जो मे देवसिओ अइआरो कओ काइओ, वाइओ, मासिओ, उस्सुत्तो, उम्मग्गो अकप्पो,