________________
१८४
श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
बीत जाने पर दान देने की विनंती करनी व आग्रह करना, चौथे शिक्षाव्रत अतिथिसंविभाग व्रत के अतिचार से बंधे हुए अशुभकर्म की मैं निंदा करता हूँ | (३०) सुहिएसु अ दुहिएसु अ, जा मे अस्संजएसु अणुकंपा
रागेण व दोसेण व, तं निंदे तं च गरिहामि । (३१) सुखी अथवा दुःखी असंयमी पर राग या द्वेष से मैने जो अनुकंपा की हो उसकी मैं निंदा व गर्दा करता हूँ |ज्ञानादि उत्तम हितवाले, ग्लान और गुरु की निश्रामें विचरते मुनिओं की पूर्व के प्रेम के कारण या निंदा की दृष्टि से जो (दूषित) भक्ति की हो, उसकी मैं निंदा व गर्दा करता हूँ | (३१) साहूसु संविभागो न कओ तव चरण करण जुत्तेसु;
संते फासुअदाणे, तं निंदे तं च गरिहामि । (३२) वहोराने लायक प्रासुक (निर्दोष) द्रव्य होने पर भी तपस्वी, चारित्रशील व क्रियापात्र मुनिराज को वहोराया न हो तो उसकी मैं निंदा करता हूँ व गर्दा करता हूँ | (३२)
(सामान्यसे बारह व्रतके अतिचार) इह लोए पर लोए, जीविअ मरणे अ आसंस पओगे
पंचविहो अइआरो, मा मज्झ हुज्ज मरणंते । (३३) १) इहलोक संबंधी भोग की आसक्ति २) परलोक संबंधी भोग की आसक्ति ३) दीर्ध जीवन की आसक्ति ४) शीघ्र मरण की इच्छा, व ५) कामभोग की इच्छा, ये (संलेखना व्रत के) पाँच प्रकार के अतिचार मुझे मरण के अंतसमय में भी न हो |(३३)