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श्री संवत्सरी प्रतिक्रमण विधि सहित
करना। ८) रस-वाणिज्य महाविगइ तथा दूध, दही, घी, तैलादि का व्यापार । ९) केशवाणिज्य- मोर, पोपट, गाय, घोडा, घेटा विगेरेके केशका व्यापार । १०) विषवाणिज्य - जहर और जहरीले पदार्थों तथा हिंसक शस्त्रों का व्यापार | ११) यंत्रपीलनकर्म अनेकविध यन्त्र चक्की, घाणी आदि चलाना, अन्न तथा बीज पीसने का कार्य । १२) निर्लांछनकर्म-पशुओं का नाक-कान छेदना, काटना, आँकना, डाम लगाना व गलाने का कार्य । १३) दवदानकर्मजंगलों को जलाकर कोयले बनाना । १४) जलशोषण कर्मसरोवर, कुआँ, स्त्रोत तथा तालाबादि को सुखाने का कार्य । १५) असतीपोषणकर्म-कुल्टा आदि व्यभिचारी स्त्रीयाँ तथा पशुओं के खेल करवाना, बेचना, हिंसक पशुओं के पोषण का कार्य । ये सब अतिहिंसक और अतिक्रूर कार्यों का अवश्यमेव त्याग करना चाहिए | ( २२, २३)
(अनर्थ विरमण व्रतके अतिचार )
सत्थग्गि मुसल जंतग, तण कट्ठे मंत मूल भेसज्जे; दिन्ने दवाविए वा, पडिक्कमे संवच्छरिअं सव्वं । (२४)
अनर्थदंड गुणव्रत चार प्रकार के है - अपध्यान, पापोपदेश, हिंस्रप्रदान व प्रमादाचरण । इनमें से हिंस्रप्रदान व प्रमादाचरण अति सावद्य होने से उसका स्वरूप दो गाथा द्वारा बताते हैं । प्रथमहिंस्रप्रदान-शस्त्र, अग्नि, मुसल, हल, चक्की आदि यंत्र, अनेक प्रकार के तृण, काष्ठ, तथा मंत्र, मूल (जडीबुट्टी) और औषधि के विषय में बीना प्रयोजन दूसरों को देते हुए व दिलाते हुए वर्ष संबंधी जो अतिचार लगे हो उन सबसे मैं पीछे हटता हुँ । (२४)