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Lord Suvidhinātha
तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात् तथाप्रतीतेस्तव तत्कथञ्चित् । नात्यन्तमन्यत्वमनन्यता च विधेर्निषेधस्य च शून्यदोषात् ॥
(9-2-42) सामान्यार्थ - आपके मत में जीवादि पदार्थ अपने स्वरूप से है भी तथा पर के स्वरूप से नहीं भी है। पदार्थ सर्वथा अस्ति या नास्ति स्वरूप अथवा सत् या असत् स्वरूप अथवा भाव या अभाव स्वरूप नहीं है, किन्तु ऐसा किन्हीं भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से है। स्व-द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु अस्तिरूप है तथा पर-द्रव्यादि चतुष्टय की अपेक्षा से वस्तु नास्तिरूप भी है। ऐसा वस्तु का भाव-अभाव रूप स्वभाव प्रतीति में आता है। इस विधि और निषेध का या अस्तित्व और नास्तित्व का पदार्थ के साथ सर्वथा न तो भेदपना है और न अभेदपना है क्योंकि सर्वथा भेदपना या सर्वथा अभेदपना मानने से शून्यता का दोष आता है।
O Lord Suvidhinātha! Your description of reality postulates that, as established by experience, there is the conditional affirmation of a substance, from a particular point of view, and also the conditional negation, from another point of view. The two views, existence and non-existence, are not without any limitation; these views are neither totally inclusive nor totally exclusive to each other. Leaving out the limitation will lead to nihilistic delusion.
नित्यं तदेवेदमिति प्रतीतेन नित्यमन्यत्प्रतिपत्तिसिद्धेः । न तद्विरुद्धं बहिरन्तरङ्गनिमित्तनैमित्तिकयोगतस्ते ॥
(9-3-43)
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