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Lord Supārsvanātha
कर्मों के उदय के कारण उस कल्याण का या मोक्ष का लाभ प्राप्त नहीं कर पाता है। तो भी अज्ञानी प्राणी मरणादि से भय व सुखादि की अभिलाषा के वशीभूत हुआ अपने आप वृथा ही दु:खी हुआ करता है। (अनुकूल भवितव्यता की सिद्धि निरन्तर कर्मों का क्षय करने से ही होती है।) ऐसा आपने उपदेश दिया है।
O Lord Supārsvanātha! You had discoursed that the man dreads death but is not able to escape it; he constantly longs for blessedness but does not attain it. Still, due to ignorance and under the influence of fear or desire, he needlessly and continuously comes to grief.
सर्वस्य तत्त्वस्य भवान्प्रमाता मातेव बालस्य हितानुशास्ता । गुणावलोकस्य जनस्य नेता मयापि भक्त्या परिणूयसेऽद्य ॥
(7-5-35) सामान्यार्थ - हे सुपार्श्वनाथ भगवन् ! आप सर्व त्यागने योग्य व ग्रहण करने योग्य तत्त्वों के संशयादि दोष से रहित ज्ञाता हैं व जैसे माता बालक को हितकारी शिक्षा देती है उसी प्रकार आप भव्य जीवों को जो अज्ञानी हैं, हितकारी तत्त्व की शिक्षा देते हैं। आप ही सम्यग्दर्शनादि गुणों के खोजी भव्यजीवों को यथार्थ मार्ग दिखाने वाले सन्मार्गदर्शक हैं। इसीलिए मैं आज भक्तिपूर्वक आपकी स्तुति कर रहा हूँ।
O Lord Supārsvanātha! You had the true knowledge (without doubt, delusion or misapprehension) of all substances. Like the