________________
Lord Supārsvanātha
अजङ्गमं जङ्गमनेययन्त्रं यथा तथा जीवधृतं शरीरम् । बीभत्सु पूति क्षयि तापकं च स्नेहो वृथात्रेति हितं त्वमाख्यः ॥
(7-2-32)
सामान्यार्थ - जैसे बुद्धिपूर्वक न चलने वाला जड़ (गति रहित) यन्त्र (गाड़ी आदि) उसको चलाने वाले (मनुष्य) के द्वारा संचालित होता है वैसे ही यह जड़ शरीर स्वयं बुद्धिपूर्वक क्रिया नहीं कर सकता है परन्तु चेतन जीव के द्वारा संचालित होता है। फिर यह शरीर अति घिनावना है, दुर्गन्धमय है, नश्वर है और संताप का कारण है। इस शरीर से अनुराग करना निष्फल है। ऐसा हितोपदेश आपने दिया है।
As an inanimate equipment (a vehicle, for example) requires an animate being (a man) for its operation, so does the body, that the soul adopts as its encasement, require the soul for its functioning. The body is repugnant, foul-smelling, perishable, and a source of anxiety and, therefore, it is futile to have attachment towards it. O Lord Supārsvanātha, this is your benign precept.
अलङ्ग्यशक्तिर्भवितव्यतेयं हेतुद्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा । अनीश्वरो जन्तुरहक्रियार्तः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादीः ॥
(7-3-33) सामान्यार्थ - यह कर्मों का तीव्र उदय ऐसा है कि इसकी शक्ति का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। इसका चिह्न यह है कि कोई भी कार्य
45