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Lord Abhinandananātha
स चानुबन्धोऽस्य जनस्य तापकृत् तृषोऽभिवृद्धिः सुखतो न च स्थितिः । इति प्रभो लोकहितं यतो मतं ततो भवानेव गतिः सतां मतः ॥
(4-5-20) सामान्यार्थ - हे श्री अभिनन्दन भगवन् ! यह आसक्तता (अनुबन्ध) और तृष्णा की अभिवृद्धि, दोनों ही इस अति लोलुपी मानव के लिए संताप उत्पन्न करने वाले हैं। अल्प सुखों के मिलने पर इस मानव की अवस्था कभी भी सुखरूप नहीं होती, उसका संताप बढ़ जाता है। क्योंकि आपका ऐसा जगत् के लोगों का उपकार करने वाला मत है इसलिए आप ही विवेकी सज्जन पुरुषों के लिए शरणभूत माने गए हैं।
Sense-indulgence results into greater craving which, in turn, causes anguish to man. Transient sense-pleasures do not provide lasting happiness. O Lord Abhinandana! Since you had expounded such a benevolent doctrine for worldly souls, you are their true protector.
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